होता यह है की…
शब्द भी उपजते नहीं,
ऐसी मिटटी में,
जिसको लेप तो दिया हो सतह से,
आड़े ठेढे पौधों से मुक्त,
खाद भी हथेली भर कर फूँक दी हो साँसों में;
जहाँ सूर्या भी उगता हो सीधा सपाट,
और मेघ उलझ ही जातें हों जिसकी भीनी बाहों में…
ऐसी मिटटी में
शब्द नहीं उपज पाते,
फिर भी…
ऐसी मिटटी में,
जिसको लेप तो दिया हो सतह से,
आड़े ठेढे पौधों से मुक्त,
खाद भी हथेली भर कर फूँक दी हो साँसों में;
जहाँ सूर्या भी उगता हो सीधा सपाट,
और मेघ उलझ ही जातें हों जिसकी भीनी बाहों में…
ऐसी मिटटी में
शब्द नहीं उपज पाते,
फिर भी…
वो कुछ और ही खोजा करती है
अपनी बिछडी हूई जड़ें शायद।
अपनी बिछडी हूई जड़ें शायद।
September 7, 2009 (Industrial Area)
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