Wednesday, August 28, 2013

एक बार फिर

मेरी दोस्त कहती है मैं मैं नहीं रही
मैने उसका हाथ अपने हाथ में लिया
और उसके कानों में धीरे से कहा….
मैं जानती हूँ, मेरी दोस्त,
मैं मैं नहीं हूँ इस वक़्त,
अपनी रूह की लकीर से दूर जा बैठी हूँ कहीं;
बीते सालों के जो भी पन्ने हैं मुझमें बसी डाइयरी के
सभी इस वक़्त तेज़ किसी तूफान से बिखरे हैं आस पास,
कुछ मोती जो चुने थे सालों से,
वो भी एक झटके से बिखर गये हैं आस पास की ढलानों में…
पर
क्यूंकि ज़िंदगी है बहाव में,
पानी के नये रंग ओढ़ कर
इस खेल से हैरान होने में,
बस एक किनारे से सॅट कर तो रुक सी जाऊँगी मैं
किसी खूबसूरत सी हरी काई की तरह
लेकिन काई तो काई ही है ना!
उसके गर्भ में तो सिर्फ मौत ही उतरी है.
तो बह निकली हूँ मैं नये एक सैलाब में,
जानती हूँ इस नदी की बाहों में
बहुत से नये पड़ाव हैं
जो मेरे गाओं से दूर हैं बहुत
लेकिन लौट आने से पहले,
इन पड़ावों की सैर
बहुत कुछ छीन कर ,
मेरी हथेली पर कुछ नये रंग जड़ देगी
मेरे चेहरे पर नयी लकीरों के साथ साथ
मुझ पर थोड़ी और ठोस मिट्टी भी लेपेगी
और लौटा देगी
मुझे अपने गाँव
अपनी रूह की लकीर के ठीक ऊपर,
जैसे के कभी मैं बिछड़ी थी ही नहीं ….
अपने आप से…
उस दिन आना मेरे घर तुम,
और मुस्कुराना मुझे एक बार फिर मिलकर.  
ठीक है?


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