Thursday, June 18, 2009

लेह-लदाख



ढेर,
मिटटी, पत्थर और रेत के,
कहीं कहीं अचानक से पेड़ के भी…

ढेर,
जैसे उसने एक दिन खेल खेला हो,
अपने किसी बच्चे होने के एहसास में,
बनाईं बहुत सी ढेरियाँ मिटटी की
और लेप दी अपने हाथ आये रंगों से,
उमंगों से।


कभी मला एक पीला नीला हरा पौधा हाथ में
और गून्न्थ दिया एक पर;
दुसरे पर फैलाया हाथ भर कर सूखा धान
और किसी और पर बरसा दिए गेहूं के छिलके;
कुछ पर पत्थर बरसा कर
निकाल दिया रोष अपना;
और कुछ को प्यार से फुसलाया
पास से गुज़रते बादल लेप कर.
दुसरे को बहला लिया हरा भरा कर के,
और किसी और पर रख दिए पिघलते रूयीं के गुच्छे.
कुछ पर सरसों की होली खेली,
और खेलता रहा…
और फिर थक गया ढेरों को ढकते
और उन्हें छोड़ दिया,
किसी और दिन के खेल के लिए।


यही ढेर
बहुत से प्यार और पूजा के,
गूंजती चुप और गाती आंधी के,
हांफती ऊंचायी
और खेलती धूप के…
ढेर
पिघलते सूरज में नदियाँ बहाते...

यही ढेर बन गए
एक लेह-लदाख

June 29, 2007

Photo Courtesy: www.lehladakh.net

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